बचपन में दीवाली पर लिखे निबंध एक सीमित रूप रेखा के
साथ होते थे - कार्तिक माह की अमावस्या, भगवान राम की अयोध्या वापसी, नए कपड़े, मिठाइयां इत्यादि
के आस पास बुना हुआ. अब सोचो तो ऐसा लगता है वो निबंध अपने आप में खुद दीवाली की
एक रीत सी बन गया था, दीवाली के इंतज़ार की उन निशानीयों की तरह जो दीवाली से हफ़्तों पहले उसके आगमन का अहसास करवा देती थी. तब
या तो मौका या दस्तूर ऐसा नहीं था की दीवाली के इंतज़ार से जुड़ी उन छोटे-बढ़े ख़ुशी
के पलों को पिरो कर निबंध के बंधन में सजाया जा सके. अब जब समय और उम्र के साथ दीवाली का स्वरूप भी बदल गया है और
इन्टरनेट के विशाल ह्रदय में हर ऐरे गैरे की यादों की किताब छाप रही है तो सोचा
क्यों न ८०-९० के दशक की दीवाली से जुड़ी वो यादें भी लिख ही डालें? वो यादें जो हैं सब की लेकिन कहीं लिखने पढ़ने में कम
ही आती हैं - यादें जैसे दीवाली से पहले के मौसम की हल्की हल्की ठंडक की, किराने की दुकान पर पिछली दीवाली के बचे छोटे छोटे
पटाखों के अकस्मात् प्रकट हो जाने की और किसी भी बड़े खर्चे का दीवाली तक टल जाने
की.
दीवाली का दिन भले ही हर घर के लिए, हर साल के लिए अपने आप में अलग हो, उसके पहले के दिन सभी के लिए एक समान ही त्यौहारमय होते थे. ८० और ९० के दशक में जब दूरदर्शन
का बोल बाला था, तब दीवाली के आते
आते टी.वी. पर प्रेशर कुकर, दीवारों के पेंट, कपड़ों एवं नए
स्कूटर-टेलीविज़न के विज्ञापन धीरे धीरे बढ़ जाते थे. यह वो समय था जब बैंक सरकारी
थे, और कार ज़्यादातर लोगों की औकात से बहुत दूर थी.
इसलिए कोई आपको गाड़ी, लोन और गाड़ी के साथ
लोन, लोन के साथ सोने का
सिक्का या सिक्के के साथ गाड़ी की नयी स्कीम बेचने नहीं आता था.
बैंकों और बैंक अधिकारियों का तब अपना एक रुतबा था.
दीवाली के आस पास इन बैंकों के अगले साल के कैलेंडर और डायरी ज़रूर बंटती थी. लेकिन
ये सब हर किसी को नसीब नहीं होता था. उसके लिए आपको भले चंगे बैंक बैलेंस वाला
व्यापारी होना होता था. दूसरा तरीका ये हो सकता था की आप नियमित तौर पर पड़ोस के
बैंक अधिकारी के बेटे टिंकू को स्कूटर पर स्कूल छोड़ने जाते हों.
ये बात अलग है की बैंक सरकारी होने के कारण इस कैलेंडर पर ज़्यादातर सिर्फ तारीख या हद से हद कुछ
फूल-पेड़ों की तस्वीरें होती थीं.
अन्य व्यावसायिक संस्थान भी अपनी अपनी हैसियत से
दीवाली पर कैलेंडर बांटते थे - छोटे हलवाई या जूते के दुकान वालों के कैलेंडर पर
एक देवी या देवता की तस्वीर होती थी जिसके नीचे हर दो-तीन महीने की तिथियों वाला
एक परचा होता था. हर महीने एक अलग फ़िल्मी तारिका या देवी देवता की तस्वीर वाले कैलेंडर
के लिए आपकी पहुँच किसी अच्छे बिस्कुट के थोक व्यापारी, या शहर के बड़े सुनार या बॉम्बे डाईंग के
सूटिंग-शर्टिंग शो रूम तक होनी ज़रूरी थी. पारिवारिक व्यापर के चलते हमारी किस्मत में लिखे थे ऐन्कर बिजली के उत्पाद
और एशियन पेंट वाले कैलेंडर.
कहने का मतलब ये की "मुफ्त मुफ्त मुफ्त "
वाला दीवाली का शोर तब वैसा कानफाडू नहीं था जैसा अब है.
उस ज़माने में दीवाली से पहले बच्चों के मीडिया के नाम पर
सिर्फ एक सौगात थी - कॉमिक्स के दीवाली विशेषांक. रंग बिरंगे मुख्य प्रष्ठ, अनार, रस्सी बम और पटाखों की लड़ियों से सुसज्जित, मुख्य पात्र की किसी नयी शरारत का आभास दिलाते हुए. मधु मुस्कान के सुस्तराम, चुस्तराम, डैडी जी, जोजो हों या लोटपोट
के मोटू, पतलू, घसीटाराम और डॉक्टर झटका - दीवाली विशेषांक के हाथ में आने से ये आश्वासन हो जाता था
की दीवाली अब हद से हद महीने भर की दूरी पर है. किसी अनजाने कारण से कैंसिल नहीं कर दी गयी है. मध्यम वर्गीय बच्चों के लिए थोड़ी महंगी, डायमंड
कॉमिक्स के बिल्लू, पिंकी, चाचा चौधरी यूं तो सब से ज्यादा रंग बिरंगे और लार
टपकाने लायक होते थे लेकिन ये बात समझने में पूरा बचपन और न जाने कितना जेब खर्च लग गया की वो सब ज़्यादातर नए पन्नो पर पुरानी कहानी ही होती थी. हिन्दुस्तानी
संस्कार और बचपन की यादों के चलते यहाँ कार्टूनिस्ट प्राण को एक श्रद्धांजलि बनती
है, वरना सच्चाई यही है
की आज कल के बच्चे उनके झांसे में नहीं पड़ते और समझ जाते की हस साल मुख्य प्रष्ठ के अलावा
कुछ नया नहीं होता था.
बड़ों के पत्र पत्रिकाओं में धन-कुबेर सरीखी लाटरी के इश्तेहार, और दिवाली की मिठाई के लिए ख़ास व्यंजन विशेषांक देखने को मिलते थे.
उस ज़माने में अपने अमित जी (अमिताभ बच्चन जी) या
तो फिल्मों में दिखाई देते थे या सफ़ेद कुरता पाजामा पहने, और शौल लपेट कर राजनीति से जुड़े किसी समाचार में.
उन्होंने चॉकलेट को "कुछ मीठा हो जाये " की पुड़िया में बाँध कर बेचना
शुरू नहीं किया था. यानी मिठाई की परिभाषा तब भी वही होती थी जो हलवाई ताज़ी बनाने का दावा करते थे और आप सपरिवार जाकर अपनी जेब अनुसार
पसंद कर के खरीदते थे.
पड़ोस का धोती बनियान वाला हलवाई हो या बड़े बाज़ार में सजी
संवारी मिठाई की बड़ी दुकान, मिठाई के साथ डब्बे
को नहीं तोला जाने का आश्वासन एक सा होता था. गत्ते का वो बटर पेपर वाला डब्बा, और उस में सजाई जाने वाली अलग अलग मिठाई. और उस दुकान
की वो अनोखी हवा में मिठास घोलती सी खुशबू. ज़्यादातर मिठाइयों के नाम जाने पहचाने होते थे और वैसे भी बड़े साधारण रूप में नारियल से सजी होती
थी. आज की तरह हर मिठाई किसी मुग़ल खानदान से सम्बन्ध रखने का दम नहीं भरती थी और न ही बिना बात के पिश्ते-बादाम-काजू से
मेल जोल बढ़ा कर अपना मूल स्वाद खोती थीं.
मिठाई के डब्बे को बंद करने के लिए कोई
विचित्र मशीन भी नहीं उपलब्ध होती थी. सिर्फ दो बड़े बड़े रबर बैंड होते थे जिन्हें हलवाई
का सहायक एक कुशल स्पिन बॉलर की तरह बड़ी ही फुर्ती से घुमा कर डब्बे को बंद कर
देता था. उसके बाद डब्बे से रिसने वाली चाशनी जाने और आपके चिपचिपे होने वाले कपड़े
जाने. यदि डब्बे के ऊपर कोई रंग बिरंगा सेलोफीन पेपर चढ़ा होता था तो वो या तो बच्चों के खेलने के काम आते था या फिर किसी के जन्मदिन का त्यौहार बाँधने के.
बड़े बुज़ुर्ग तब भी
यही बताते थे की मिठाई की मिलावट और कीमतें आसमान छू रही हैं लेकिन हम बच्चों के
लिए उसी मिठाई में साल भर के इंतज़ार का फल छुपा होता था - जी भर के न सही, लेकिन हाथ भर के मिठाई खाने की मनचाही मुराद का फल.
बचपन के उस किताबी निबंध में एक बात सच्ची होती थी -
ज्यूँ ज्यूँ दीवाली नज़दीक आती जाती थी, गली नुक्कड़ में दीवाली के पटाखे और सजावट का सामान बेचने वाले खोपचे और ठेले
नज़र आने लगते थे. जितनी ज्यादा ऐसी दुकानें, उतनी करीब दीवाली और त्यौहार का माहौल.
इन मौसमी दुकानों पर मिलने वाले पटाखों का काम दीवाली
तक साथ देने का कतई नहीं होता था. इन का काम था बच्चों की पटाखों की भूख को हवा
देना. इन दुकानों के चलते, दीवाली से दस
पंद्रह दिन पहले ही बम पटाखों की दूर दराज़ से आवाजें आनी शुरू हो जाती थी.
पटाखों
के मसालों की एक अलग ही महक होती है जिसका विवरण शब्दों में असंभव सा लगता है.
लेकिन बचपन के लड़कपन में वो महक होती है बारूद और आग से खेलने की दिलेरी से भरी
हुई. हालांकि दीवाली से पहले चलने वाले पटाखे खतरनाक कम और बचकाने ज्यादा होते थे
- प्लास्टिक या टीन की पिस्तौल में भर कर या चप्पल से पीट कर बजने वाली मुर्गा छाप टिकली या कॉर्क, ज़मीन पर पटक कर मारने वाला छोटा सा बम और वो छोटा सा
काला सा, चिन्गारी देख कर
भयंकर धुआं छोड़ते हुए फैल जाने वाला नाग़.
बड़े और महंगे पटाखे जेब खर्च से लेने की
जगह, माता पिता के साथ
लिए जाने वाली लिस्ट में जुड़ जाते थे. वो लिस्ट जिसमें हर चीज़ दर्जनों और डब्बों के हिसाब में लिखी जाती थी. मसलन दो दर्जन अनार - १ दर्जन बड़े, १ छोटे. चार पैकेट राकेट - दो बड़े, एक छोटा और एक सीटी वाला. लक्ष्मी बम एक पैकेट और
रस्सी बम दो पैकेट इत्यादि.
अंत में जब पटाखे लेने जाते थे तब लिस्ट का इस्तेमाल
कुछ ऐसे होता था -
" बताओ क्या लेना है ? "
"दो पैकेट राकेट और
..."
"हाँ भाई राकेट कैसे
दिए ? "
"५० का छोटा, १०० का बड़ा पैकेट "
"क्या !!?? लगता है भूल गए हो की हर साल तुम से ही ले जाते हैं
!"
" अच्छे से याद है
जी. आप तो हमारे ख़ास हैं. लेकिन ये पटाखे पिछले साल वाले नहीं है, शिवाकासी से कल ही मंगवाए हैं, ख़ास आपके लिए निकलवाए हैं"
"अच्छा चलो चार पीस
छोटे राकेट और चार बड़े पीस दाल दो. एक पैकेट फुल्झड़ी और एक पैकेट छोटे बम का दाल दो"
कई दिनों से बनायीं हुई लिस्ट की यह दुर्दशा होते देख
कर मुंह खुला का खुला रह जाता था और कंठ रूंध जाता था. थोडा सा मिमियाने और मिन्नतें करने पर यह धमकी मिलती
थी की "ज्यादा शोर मचाओगे तो ये भी यहीं छोड़ देंगे". इस वज्र से कठोर ह्रदय के सामने बड़े से बड़ा शैतान बच्चा वास्तविकता को तुरंत अपना लेता है. जो नहीं अपनाते वो भी जितने मिल रहे हैं उतने पटाखों को बस में करने के बाद ही अपना रोने कलपने का नाटक शुरू करते हैं. लेकिन उस लिस्ट का इस्तेमाल
फिर भी होता था - स्कूल में मित्रों के सामने शेखी बघारने में की "इतने तो ले
ही आये हैं छोटी दीवाली के लिए, पिताजी ने कहा है असली दीवाली के लिए और दिला देंगे." कौन आ रहा है देखने की कितने चलाये और कितने नहीं ?
थोड़ी ही सही, लेकिन दीवाली पर स्कूल की छुट्टियां होती थीं. छुट्टियों के साथ ही शुरू हो
जाता था घर की साफ़ सफाई में योग दान. जैसे मेज़ पर स्टूल रख कर पंखा साफ़ करने का, खिड़की पर लटक कर धुलने के लिए पर्दे उतारने का.
घर को सजाने के लिए अन्य सामान और मिट्टी के दीये भी
लिए जाते थे. इन दीयों में तेल डालने से पहले इन्हें पानी में डुबोना होता था.
भीगे दीयों से आने वाले माटी की वो भीनी भीनी खुशबू आज ढूँढने पर भी कहीं नहीं
मिलती.
और तब, हालांकि
ये सब करने में मन नहीं लगता था लेकिन आखिर तो सारी मिठाई और पटाखों का आयोजन माँ
के ही हाथों में होता था. और मन मार के ये सब करने में भी मन में कहीं त्यौहार की
अनुभूति हो रही होती थी.
ऐसे में यदि दीवाली साथ मनाने के लिए जयपुर के चाचा
अपने परिवार सहित आ जाते थे तो बात ही क्या थी ! बिना रोक टोक खेलने के लिए और ज्यादा बच्चे, और ज्यादा पकवान, मिठाइयां, और मज़ा.
दीवाली से दो दिन पहले, धन तेरस पर नए बर्तन लेने की प्रथा है जो कि बाल मन के लिए एक बे मानी सा विषय
है. लेकिन उस दिन तक घर पर मिठाई देने वाले आने शुरू हो जाते थे. जो डब्बे
बाज़ार से लाये गए थे वो या तो दूसरों को देने के लिए होते थे या फिर पूजा पर चढाने
के लिए दीवाली की शाम तक बंद रहने वाले थे. वो सब डब्बे जैसे फ्रिज में बैठ कर
चिढ़ा सा रहे होते थे की हिम्मत है तो खोलो और खाओ ! उन्हें हराने आते थे उपहार स्वरूप मिलने वाले मिठाई के डब्बे. वो डब्बे जो
खुलते भी थे और खाए भी जाते थे. यानी खाने की दीवाली की अंततः शुरुआत हो ही जाती
थी.
छोटी दीवाली या नरक चतुर्दशी. इसके नाम से ही लगता है मानो किसी बालक ने जिद को ही की माँ थोड़ी से दिवाली तो मनाने दो, छोटी सी ही सही. बस अब दीवाली का इंतज़ार और नहीं होता. रौशनी और आतिशबाजी की शुरूआत हो जाती है. कुछ पटाखे
निकाल कर उन्हे छोटी दीवाली पर दोस्तों या परिवार जनों के साथ चलाया जाता है. कुछ
कंजूसी से, और कुछ इस उम्मीद से की यदि कम हो गए तो दीवाली
के अवसर पर माँ और पटाखे दिलवा ही देंगी.
इस दिन बाजारों में भीढ़ अपनी चरम सीमा पर होती थी. हर कोई बाज़ारों में बिना भीढ़ के बावजूद, सिर्फ दीवाली के इंतज़ार में खुश-खुश सा ही घूम रहा होता था. हवा में हर तरफ मिठाई और गेंदे के फूलों की महक बिखरी होती थी.
और फिर आता था दीवाली का दिन, जिसका इंतज़ार पिछले साल की दीवाली के अगले दिन से किया गया
था. किसी महा नायक की महा फिल्म की महा रिलीज़ के लिए नहीं, टी.वी. के किसी ख़ास दीवाली वाले कार्यक्रम के लिए भी
नहीं. किसी और के घर होने वाली ख़ास पार्टी और पार्टी के पीछे होने वाले दिखावे या
ताश की बाज़ी के लालच में नहीं. सारे विश्व को किसी दूसरे का लिखा सन्देश मोबाइल या
इन्टरनेट पर औपचारिकतावश भेजने के लिए नहीं.
ये इंतज़ार होता था खुद दीवाली के दिन के लिए. चाहे किसी घर में भरपूर मिठाई या पटाखे न हो, खुशियाँ मनाने के लिए कोई बड़ा बजट या मौका न हो, दिन फिर भी ख़ास होता था. अब न तो दीवाली वैसी है न दीवाली का इंतज़ार ही लेकिन फिर भी साल दो हिस्सों में बंटा होता है - दीवाली के पहले और दीवाली के बाद