Friday 22 January 2016

कोट के अंदर की जेब

"जैसे जैसे उसके पाँव कमरे की ओर बढ़ रहे थे, उसके दिल की धड़कने धकनी की तरह तेज़ होती जा रही थीं। रात के २ बजे उसने पूरा घर छान मारा था लेकिन उसकी बीवी कहीं नहीं थी । दरवाज़े पर पहुँच कर उसके क़दम ख़ुद ब ख़ुद ही रुक गए। दिसम्बर की सर्दी में भी उसका माथा पसीने पसीने हो रहा था । इस समय उसकी हालत उस आदमी की तरह थी जिसके पास पेट भरने को सिर्फ़ एक १० रूपए का नोट बचा था और वो भी कहीं खो गया था। और अब उसका हाथ कोट के अंदर की आख़री जेब तक पहुँच तो गया था लेकिन वो हाथ डालने से डर रहा था। कहीं वो जेब भी ख़ाली हुई तो ?"

सुरेन्द्र मोहन पाठक के किसी नॉवल में इस प्रकार का एक घटना क्रम और कोट के अंदर की आख़िरी जेब का यह उदाहरण मैंने कई साल पहले पढ़ा था। मुझे नहीं लगता आप में से कोई उस नॉवल को जाकर पढ़ेगा इसलिए आपकी उत्सुकता शांत करने के लिए मैं बता सकता हूँ की उसकी बीवी उस कमरे में भी नहीं थी। 

लेकिन यह लेख किसी पुरानी किताब की समीक्षा नहीं है। मेरे लिए उल्लेखनीय बात थी कोट के अंदर की उस जेब का उदाहरण। वो आख़िरी जेब जो उन हालात में हताश निराश परेशान ज़िंदगी की आख़िरी उम्मीद थी। लेकिन मैं जानता हूँ की वही बेजान कोट की छुपी हुई जेब कभी वो तोहफ़ा भी होती है जो बिना किसी उम्मीद के मिल जाता है। 

मैं कुछ ७-८ साल का था जब मेरे हाथ ऐसे ही एक कोट में से कुछ रुपए लग गए थे। ज़्यादा नहीं यही कुछ १० -२० रुपये। रक़म अपने आप में कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन एक ७-८ साल के बच्चे के लिए वो फिर भी काफ़ी थी। यह मुझे याद नहीं की उस नादान उम्र में मुझे कितनी समझ थी लेकिन यह याद है कि मेरी ख़ुशी उन पैसों से कहीं ज़्यादा थी। वो काग़ज़ भारत सरकार के "धारक" को किए वादे के नहीं मेरे स्वर्गीय पिता की निशानी थे। उनकी निशानी जिनकी शक्ल तक मुझे तस्वीर के माध्यम से ही पता थी।  ऐसे में वो नोट मेरे हाथ लगना जिन्हें तब से कुछ साल पहले सिर्फ़ और सिर्फ़ उनके हाथों ने कोट के अंदर की उस जेब में रखा हो सकता था - अपने आप में ये विचार आज भी मेरी आत्मा के क़रीब है। 

कई बार हैरानी होती है की उम्मीद - ना-उम्मीद, नीरस जीवन और बेतहाशा ख़ुशी के बीच की दूरी इतने महीन धागों से कैसे निर्धारित हो सकती है? शायद ये बारीकी धागों के उन रेशों की नहीं, जीवन के उन इकलौते पलों की है जो मायूसी को उम्मीद से, बीते कल को आज से बांधे रखते है। ज़रूरी नहीं कि हमेशा ये पल कोट की जेब के अंदर छुपे मिलें। ऐसे पल दरवाज़े की आहट, फ़ोन की घंटी, ख़त के बंद लिफ़ाफ़े जैसे मामूली परदे के दूसरी ओर दुबके छिपे हो सकते हैं। 
लेकिन ये ज़रूर है की एक बार वो छोटा दिखने वाला उम्मीद का नाज़ुक बड़ा पल जिस भी शक्ल में मिल जाए, वो शक्ल - कोट के अंदर के जेब की तरह - हमेशा के लिए आपकी उम्मीद भरी नज़रों से मिलेगी। 
सिर्फ़ दिल के साथ लगी हुई नहीं, बल्कि दिल के क़रीब, कोट के अंदर की जेब की तरह।