Thursday 27 July 2017

हम तो बाबू लोग हैं

८० के दशक में फ़िल्म हीरो के एक गीत के बोल थे "तू मेरा जानू है, तू मेरा दिलबर है"। दीन दुनिया और हिंदी अंग्रेज़ी की समझ से जूझते इस बाल मन में ये शब्द जानू अटक सा गया।  तब तक मिस्टर इंडिया आयी नहीं थी लेकिन इतना तो समझ में आ ही गया था कि स्कूल में मोग़ैम्बो नुमा शर्मा सर इस सवाल से कोई बहुत ख़ुश नहीं होंगे कि "सर  ये जानू क्या होता है ?"
फिर एक और फ़िल्म आयी जिसका नाम ही था जानू। बिना किसी के समझाए सम्पूर्ण भारत वर्ष और इस लेखक को समझ में आ गया की जानू dear - डार्लिंग, प्रिये -प्रियतमा जैसे किताबी संबोधनो का व्यावहारिक, प्रैक्टिकल अवतार था ( by the way that's how you pronounce it - its not ऐवटार its अवतार)। क्यूँ और कैसे कोई जान से जानू बन जाता है ये ना तो सुभाष घई साहब ने बताना ज़रूरी समझा ना मेरे समझने की उम्र थी। 

पिछले कुछ सालों से मार्केट में एक नया स्नेहकारी शाहकार शब्द का प्रचलन है जो जानू से ज़्यादा नहीं तो उतना ही विस्म्यकारी है। ये नया शब्द है बाबू । कहते हैं जब दोस्ती जान से आगे जाकर, जानू को लाँघकर, बेबी की हदें पार कर लेती है तो आपको अपने दिलबर में बाबू दिखता है। 

इसे वो sophisticated बाबू ना समझें जिन्हें किसी ज़माने में मधुबाला और नए ज़माने में याना गुप्ता धीरे चलने का आग्रह करती हैं । हालाँकि इस नए बाबू को भी गति, संगति और मति पे नियंत्रण रखने की उतनी ही संगीन ज़रूरत है। 
इसे किसी सरकारी दफ़्तर में ना होने वाले काम का महीन बोझ कंधों पर उठाए, नौकरी से आश्वस्त, रिश्वत लोलुप बाबू भी ना समझें। हालाँकि इन बाबू जी की सामाजिक स्थिति भी वैसी ही है - ये ख़ुद अपने आप को काम-काज और लोक-लाज से इतना परे समझते हैं कि इनके हवाले हुई ज़िम्मेदारियों और फटी जीन्स में पहले गिरने की होड़ लग जाती है। दैट्स बिकौज़ ही इज़ नोट ए बाबू मोशाय , ही इज़ बाबू नो-शाय। 

ये नया बाबू उन पुराने बाबुओं, जानूओं की छवि के विपरीत शायद कम वयस्क है। "मेले बाबू ने आज का काया ? " - यहाँ एक बाबू अपने बाबू से बच्चों की तरह तुतला कर पूछ रहा है की उसने आज क्या खाया। 

जानू के ज़माने में जहाँ फ़ोन और चिट्ठी का प्रचलन था आजकल के बाबू मोबाइल के ओर छोर अपना जाल बुनते पाए जाते हैं। सुनने में आता है की अक्सर  दोनो मोबाइल के बिल बाबुओं के जोड़े में से एक ही भरता है - शायद वो जिसे कुछ-कुछ कुछ ज़्यादा ही होता है। इन्हें ना तो 'साजन साजन पुकारूँ गलियों में ' वाले pain in the neck को झेलना पड़ता है ना ही अनजाने अपार्टमेंट के नीचे ' अरे मीना कहाँ है तेरा ठिकाना' पे नाचना पड़ता है। आज के युग में पिज़्ज़ा नहीं साहब बाबू लोगों का तथा कथित 'प्यार' है जो तीस मिनट से कम में फ़ोन पर भी मिलता है। 

इस बाबू को बेस भी पसंद है और फ़ेस भी - अपने बाबू के साथ साथ अपना फ़ेस भी हर समय फ़ेस बुक पर सजाए रखने का जैसे इसने अपने ना होने वाले ससुर को वचन दिया हो। 

आज का बाबू ब्राण्ड अवगत नहीं अपना ब्राण्ड ऐम्बैसडर ख़ुद है। श्री श्री बादशाह और साथियों के विख्यात शब्दों में  " इसे गाड़ी चाहिए लम्बी , इसे म्यूज़िक चाहिए loud। कहते तो हैं स्टूडेंट हैं but I doubt" । अर्थात : इनकी ज़िंदगी की प्राथमिकताओं की समझ में कुछ झोल है। इन्हें चरित्र नहीं चित्र सुंदर चाहिए जो ये एक तरफ़ तो अपने बाबू को रिझाने के उपयोग में लाएँ और दूसरी ओर अपने तथाकथित मित्रों से शेयर करने के बहाने दुश्मनी निभा सकें। 

सुनने में तो लगता है कि हिंदुस्तानी समाज को इस नए विदेशी जंतु से तुरंत छुटकारा मिलना चाहिए। लेकिन ज़रा सा टटोलने से आपको दिख जाएगा कि ये पूर्णत: देसी नसल है। आख़िर इस फ़सल का पेड़ वही था जो अस्सी के दशक में जानू के नाम से जाना जाता था। 
गीतकार समीर ने शायद कलयुग की इस चाल को समझते हुए ही कहा था -" धीरे धीरे प्यार को बढ़ाना है, हद से गुज़र जाना है। " बाबू लोग शायद उसी हद से गुज़रने का नतीजा हैं।