हलवे से मेरा परिचय नाना जी के दिये 2 रुपये के बहाने हुआ. माखन लाल टीका राम हलवाई की दुकान ज्यों ज्यों पास आती थी, हलवे के कणों से लिपटी किशमिश की कल्पना से ही मन और मूँह लबालब होता जाता था। कुछ ही देर में अपने प्यारे सिक्कों को माखन लाल के लाल(बेटे) के हवाले कर, पंजों के बल खड़े होकर काउंटर के उस पार झाँकते हुए पूरी श्रद्धा से ये प्रार्थना होती थी कि हे प्रभु कुछ ऐसा चमत्कार करो की वज़न से ज़्यादा हलवा मेरे डोने में गिर जाये आज।
जितना भी चढ़ता था, शुरू में तो लगता था वाह ! किस्मत हो तो ऐसी। बेंत के चम्मच् पर जितना हलवा एक बार में टिक सकता था, उससे भी कुछ ज़्यादा ही चढ़ा कर पलों में मूँह के हवाले 4-5 बार जा चुका होता था। अचानक उस पत्तों के दोने का तेल से चमकता तल हलवे के बीच से दर्शन देता था और सच्चाई अपना कड़वा रूप दिखा देती थी। ज़िन्दगी का पहला सबक जो तब तक ना सीखा वो ये था की किस्मत का दोना जितना भी भरा हो खर्चने से खाली होता ही है। उसके बाद चम्मच पर टिके हलवे का वज़न और मूँह की तरफ जाते हाथ की गति के बीच जैसे एक होड़ सी लग जाती थी - पीछे रह जाने की। सारा जतन और यतन लग जाता था उस हलवे को ज़्यादा से ज़्यादा देर चलाने में और किशमिश के एक दाने को आखरी चम्मच तक बचाने में।
हलवे का दूसरा रूप था गुरुद्वारे के कढाह प्रसाद का। हथेली पे हल्का गरम सा, थोड़ा दरदरा दानेदार सा, थोड़ा ज़्यादा तेल वाला। थोड़ा सा ही मिलता था लेकिन बहुत होता था। लेकिन फिर भी उस थोड़े से हलवे को ज़्यादा करने का लालच बाल मन में आ तो गया ही - काश ऐसा हलवा घर में बन जाये !
मेरी माँ कहती है वैसा हलवा घर पर नहीं बन सकता क्योंकि वो प्रसाद होता है - उसमें खुदाई नूर होता है। शायद ऐसा ही हो। गुरूद्वारे का प्रसाद उन चीज़ों में से है जो कम में भी भरपूर का मज़ा दे देते हैं।
तीसरा हलवा मिलता है दुर्गा अष्टमी (कंजक) पर। पूरी और छोलों के साथ घुलता मिलता सा, जितना चाहो उतना मिलने वाला हलवा। लेकिन नौकरी और हलवा भी भला कभी बिना किसी दुविधा के मिलते हैं ? कंजक के इस हलवे में एक विचित्र दुविधा होती है - उस हलवे को यूँ ही खाया जाये या छोलों में मिला के - मीठा नमकीन स्वाद लेकर ?
दुर्गा अष्टमी में जब अड़ोस पड़ोस के हलवे पूरी आते थे तो पड़ोस की आंटीयों के पाक कौशल की पोल भी खुल जाती थी। उतने बचपन में भी मुझे पता था की जो हलवा सफेद दिखता था उससे कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये। अब जब मैं खुद 2-2 घंटे तक सूजी को घी में पकाता हूँ तो मुझे पता चलता है की दरअसल सफेद हलवा बनाने वाले के आलस की चुगली करता है। जितना गाढ़ा हलवे का रंग, उतनी मेहनत लगाई है बनाने वाले ने उसे काढ़ने में। मुझ से कोई पूछे तो मन मार कर कच्चे रंग का हलवा बनाने से अच्छा हलवा ना ही बनाया जाये। ये जीवन का वो दूसरा ज्ञान है जो चाहो तो हलवे और हलवाई दोनों से मिलता है - मेहनत की काढ का कोई जुगाढ़ नहीं होता।
आज जब दिल करे हलवा बनाने और खाने में जेब और पत्नी जी दोनों की स्वीकृति है, तब उमर और कमर पर समय ने अपनी और कई बंदिशें लगा दी हैं। अब घर में हलवा बना कर छोटी से छोटी कटोरी में हलवा डाला जाता है - कहीं घी से शरीर की कॅलरीस ना बढ़ जाये। लेकिन खाया अब भी वैसे ही जाता है - धीरे धीरे, स्वाद को चबा चबा कर, और आखरी चम्मच के लिये किशमिश को बचा बचा कर।
4 comments:
वाह क्या बात है! मजा आ गया पढ़ कर!
Thanks Deepak ji :-)
So true indeed:)
Enjoyed every bit of it...reading I mean;)
Post a Comment